Monday, May 26, 2008

मगरमच्छ

मीडिया में अनगिनत मगरमच्छ हैं, इनमें से कुछ तो मीडिया के भीतर ही है और कुछ खुले में विचरण कर रहें हैं। जो भीतर हैं वह नये लोगों को हिकारत की नजर से देखते हैं और जो बाहर हैं वह अपनी नयी नौकरी की तलाश में हैं।
यह लोग नये लोगों के द्वारा की गई इज्जत को चापलूसी समझकर उनका जमकर शोषण करते हैं। ये दोनों तरह के मगरमच्छ ज्यादातर वह पत्रकार हैं जो कुछ नाम कमा चुके हैं और ये समझते हैं कि अब वह इस फील्ड के 'बाबा' हो गये हैं।इनमें चालीस की दहलीज पार कर चुके अधिकतर वह पत्रकार हैं जो युवा महिला पत्रकारों पर अधिक और पुरुष पत्रकारों से थोड़ी सी कन्नी काटते हैं। लेकिन जब इन्हें पता चलता है कि आज शाम की दारु का जुगाड़ लोंडे के पास हैं तो वे इससे भी प्यार से बात कर ही लेते हैं। इस तरह के जीव आपको आईएनएस(INS) के सामने के पार्क और अधिकतर प्रैस क्लब में विचरण करते मिल जायेंगे। आईएनएस के सामने वाले पार्क में शाम के समय आठ दस झुंड में ये लोग मिल जाते हैं। इनमें से अधिकतर वह बेरोजगार पत्रकार होते हैं जो यहां काम कर रहें पत्रकारों से अपनी नौकरी की सिफारिश या फिर किसी अखबार अथवा इलैक्ट्रोनिक मीडिया के दफ्तर में अपनी गोटी सैट करने आये हुय़े होते हैं।
यहां पर इन्हें ऐसे लोग मिल ही जाते हैं जो नये होते हैं और जिनके लिये आईएनएस किसी हज से कम नही होता। नये लोगों को लगता है कि आईएनएस ही एक मात्र ऐसी जगह है जहां से उन्हें काम या फिर इस क्षेत्र में ऊभर रही नयी संभावनाओं की जानकारी मिलेगी। ये ठीक भी है, लेकिन पुराने लोग इसी बात का फायदा उठाकर नये युवा पत्रकारों का शिकार यहां करते हैं। पहले ये उसे अपनी जेब से एक दो बार चाय पिलाते हैं। पत्रकारिता पर लंबे लंबे भाषण देते हैं। चूंकि इन्हें कोई और काम तो होता नहीं है इसलिये ये अपनी तारीफ के कसीदें भी गढ़ने से यहां पर बाज नही आते। इसके बाद इनका नये लोगों को फंसाने का काम आरंभ होता है। ये पहले उससे उसका फोन नंबर और फिर धीरे धीरे बड़े ही प्यार से उससे अपनी चापलूसी करवाते हैं। वह इससे कुछ इस तरह से बात करते हैं जैसे सारी दुनिया के पत्रकार इनके चेले हैं और ये गुरू। अब ये गुरू घंटाल इन नये लोगों से कुछ छोटी स्टोरी करने के लिए या फिर कोई रिसर्च का काम करने के लिए कहते हैं। युवा पत्रकार को लगता है कि उसकी परीक्षा शुरू हो गयी। वह लाइब्रेरी में घंटों बैठकर रिसर्च करता है और एक दो दिन बाद गुरू घंटाल को सौप आता है। बस फिर क्या गुरू खुश, दे डालते हैं चेले को आर्शीवाद। बेटा आपने काम बढ़िया किया। देखना ये जल्द ही छपेगा। फिर वह छपता भी है, लेकिन गुरू घंटाल के नाम से। ऐसे गुरू घंटालों ने अपने घरों में भी एक दो पीसी लगाकर अपनी प्रैस खोली हुई है।
ये नये लड़को से काम करवाते हैं और उसे अपने नाम से धड़ाधड़ छपवा कर मोटा पैसा कमाते हैं बदले में ये युवा पत्रकार को ये कहकर की अभी तो आप काम ही सीख रहें हैं। इसे ये प्रत्येक लेख के सौ या फिर ज्यादा से ज्यादा दो सौ रुपये थमा देते हैं। इन गुरू घंटालों में वह पत्रकार हैं जिनका काम फ्रीलांसर के रूप में देश के कुछ प्रमुख अखबारों में छपता रहता है। ऐसे लोग अगर आपको मिल जाये तो इनके सामने से ऐसे गायब हो जाना जैसे गधे के सिर से सिंग। इसी तरह से कुछ मोटे दारूबाज पत्रकार आपको शाम के समय अपनी 'गोटी सैट' करने प्रैस क्लब आते हैं। ये वह पत्रकार होते हैं, जो इधर उधर से कमा चुके हैं और मोटा कमाने की चाह में यहां आते हैं। ये दारूबाज यहां बैठकर ये सुनिश्चित करते हैं कि किस चैनल में हमारी दाल ठीक से गल सकती है और कौन से चैनल का मालिक साल दो साल के लिये उनके द्वारा ठीक प्रकार से बेवकूफ बन सकता है। यह प्रैस क्लब में बैठकर ये भी तय करते हैं कि किस चैनल के मालिक को उसी के दफ्तर में बैठकर कितना 'काटा' जा सकता है। ये वह लोग होते हैं जो अक्सर अपने आप को थोड़ा सा बेकार में ही व्यस्त रखते हैं। ये आपको दिल्ली की हर उस पार्टी में मिल सकते हैं जहां मुफ्त की दारू और मुर्गा मिलता हो। इनका दिल महिलाओं के प्रति नरम होता है। इन्हें अगर कोई महिला युवा पत्रकार बात कर लें तो ये उनसे चिपक ही जाते हैं। इनका एक ही उद्देश्य होता है जीवन में मैक्सिमम एन्जाय और वह भी फोकट में।ये नये लोगों को उपदेश खूब देते हैं लेकिन कभी सही रास्ता नही बताते।
यह हमेशा अपने जुगाड़ में रहते हैं और नये लोगों को हमेशा आत्मबल गिराते रहते हैं। उनका विश्वास तोड़ते रहते हैं। ऐसी बाते सुनाते हैं कि कोई कमजोर दिल का युवा हो तो बेचरा आत्महत्या ही कर ले। ये नये लोगों को इतना डिप्रैस करते हैं कि वह या तो इस फील्ड को छोड़ने का मन बना लेता है या फिर ये मानने लगता है कि उसने जीवन की सबसे बड़ी गलती पत्रकारिता में आकार कर दी। इनमें से कुछ लोग जो चैनलों में काम करते हैं महिलाओं की इज्जत से भी खूब खेलते हैं। अभी हाल की ही मैं बात करू तो कुछ ही समय पहले लगभग छह महीने पहले देश के एक प्रमुख चैनल के रिपोर्टर के खिलाफ एक युवा पत्रकार ने आरोप लगाया कि, फलां आदमी ने मुझे पिछले छह महीने से यहां नौकरी का झंसा दिया हुआ है और वह पिछले छह महीने से मेरी आबरू से खेल रहा है। इस बात को सुनकर चैनल के बड़े अधिकारियों को बोलती बंद हो गयी। क्योंकि भाई जान पहले भी कई बार ऐसे मामलों में नाम कमा चुके थे। इस बात को जो भी कोई सुनता वह यही कहता, भाई जान के लिये ये कौन सा नया काम है। यह तो वह हर छह महीनें में करते हैं। लेकिन युवा महिला पत्रकार भी हार मानने वाली नही थी। उसने भाई जान के खिलाफ रिपोर्ट भी दर्ज करवाने के कोशिश की, लेकिन भाई जान का नाम ऐसा है कि अपने देश की पुलिस भी नाम सुनकर सन्न रह गयी। मामला चैनल के प्रमुख लोगों तक पहुंचा, लेकिन ऊपर के लोग अगर रिपोर्टर के खिलाफ जाये तो उनके चैनल से एक ऐसा चेहरा कम होता है जिसके बल पर चैनल पूरे बाजार में एक टांग पर कूदता फिरता है। अब चैनल क्या करे, तो उसने वही किया जो अक्सर होता है। जब शिकारी शेर का शिकार नही कर पाता तो अपनी झेप मिटाने के लिए साले गधे का शिकार कर देता है। इससे दो फायदे होते हैं, एक तो गधे को मुक्ति दिलाने का भाग्यफल शिकारी को मिलता है। दूसरा गधे का शिकार करने पर कोई कुछ नही कहता। इसे एक्सीडेंट या गधे की शोर मचाने की आदात के बदले दी जाने वाली सजा के प्रावधान में जोड़ा जा सकता है। बाद में यह भी कहा जा सकता है कि साला गधा था, काम करना आता ही नही था। हम तो डंडे से काम करवाया करते थे। अब साले को सही रास्ता दिखा दिया। इस तरह से चैनल की खाल भी बच गयी और रिपोर्टर की शान को भी बट्टा नही लगा। कुछ दिनों की गहमा गहमी रही फिर सभी कुछ शांत, मामला रफा दफा।हालांकि बाद में सुनने में आया कि इस पीड़ित पत्रकार को एक नये चैनल में भाई जान ने काम भी दिलवा दिया। लेकिन काम के बदले युवा महिला पत्रकार को कितना अपमान सहना पड़ा इसका अंदाजा हम तो कम से कम नही लगा सकते। लेकिन भाई जान हैं कि मानते ही नही। अब सुना है कि भाई जान एक और युवा एंकर के साथ जीभर कर प्रेम का पान कर अपनी आत्म को तृप्त कर रहें हैं। इन्हें अक्सर चैनल की लिफ्ट में देखा जा सकता है। वैसे ऐसे किस्से हर एक चैनल में होते हैं। यहां भी है तो हमें क्या परेशानी है भाई। लेकिन एक बात तो है कि 'मीडिया का लुच्चा और घर का चोर' साला कभी हाथ नही आता। कारण बड़ा ही साफ है, ये दोनों ही ऊंची आवाज में बात करते हैं। असल में तो बात यह है कि मीडिया में जो एक बार चल गया वह अपने आपको "बाबा" मानता है।तो भाईयों आप को और बड़े मगरमच्छों की जानकारी देते हुए मैं आगे बताता हूं कि मीडिया में केवल ऐसे ही लोग नही है जो महिलाओं की इज्जत से खेलते हैं ऐसे भी लोग हैं जो समाज का खुले में चीर हरण कर देते हैं। यह लोग ऐसे हैं जिन्हें आप एक नजर से पहचान नही पायेंगे।
ये ऐसे लोग हैं जो मीडिया में हैं ही केवल गंद फैलाने के लिए। ये वह लोग हैं जो शार्टकट से उंची जगह पहुंचे हैं औऱ वहां रहने के लिए किसी भी तरह की कुर्बानी देने के लिए तैयार रहते हैं। यहां ऐसे भी लोग है जो आपको दिखने में बेहद सभ्य लग सकते हैं, लेकिन वह इतने कमीने हैं कि आप उनकी सोच तक पहुंच ही नहीं पायेगें। अब हाल ही का एक वाक्य में आपको सुनाता हूं। मेरे एक दोस्त हैं। अच्छा मेरे बहुत से दोस्त हैं इनमें ज्यादातर वह हैं जिनका जिक्र में यहां जरूर करने वाला हूं। ये दोस्त मेरा ऐसा है जो दिखने में बिल्कुल सतीश कौशिक जैसा है। फर्क केवल इतना है कि सतीश कौशिक मात्र कलाकार है और ये कलाकारों का भी कलाकार है। इन दिनों आप इन्हें आजतक के कार्बनकापी चैनल पर देख सकते हैं। अब यार हम से ये मत पूछना कि आजतक की कार्बनकापी कौन सा चैनल है। पहले ही हम इतने पंगे ले रहें हैं अब कुछ से तो पंगा नही ही लेंगे। खैर ये यहीं पर पाये जाते हैं और देखा गया है कि ये चैनल की टीआरपी बढ़ाने के लिये आरूषि का मोऱफ्ड किया हुआ एमएमएस चलवा रहें थे। मेरी समझ में ये नही आता कि बगैर किसी सबूत और ठोस प्रमाण के ये आदमी किसी के
आत्मा पर कैसे चोट मार सकता है। पहले ये चैनल के वरिष्ठ लोगों से एक्सक्लूसिव खबरें देने का झांसा देता रहा। यह कोई अच्छी खबर तो कर नही पाया हां आरूषि की हत्या को जरूर भुना गया। शर्म आनी चाहिए ऐसे पत्रकारों को जो अपने अधकचरे ज्ञान से इस क्षेत्र में गंदगी फैला रहें हैं। ये साले वह मगरमच्छ हैं जो समाज को भी गंदा कर रहें हैं और पत्रकारिता को भी।अब भाई लोग लगता है मैं तो भावूक हो गया। क्या करुं भाई लोगों इन दिनों कुछ चैनलों के द्वारा जो बदतमीजी मैंने आरूषि के मामले में होती देखी है इससे तो ये लगता है कि कुछ ही दिनों में ये 'बाइट सोल्जर' साले हम जैसे नये लोगों की बजा देने वाले हैं। क्योंकि इन्हीं को देखकर आने वाला समाज इस क्षेत्र से जुड़े लोगों की भूमिका तैयार करेगा। वैसे भी आजकल पत्रकारों को 'दलाल' का पद तो मिल ही गया है। अब तो ये देखना है कि इस तमगे पर और कितने तमगे लगने बाकी हैं।

Thursday, May 22, 2008

बंदर के हाथ तलबार

मीडिया वही दिखाता है जो सामने होता है। ये अक्सर हम सुनते भी है और साधारणता देखते भी हैं। लेकिन क्या देखा गया सच हकीकत में वही होता है जो समाज में घटित होता है? शायद नही।
ये कहना कि मीडिया सच दिखाता है तो मेरा यहां पर यह कहना है कि मीडिया वही दिखाता है जो उसमें काम करने वालों को सही लगता है। वह तो बहुत दफा ये भी नही समझ पाता कि क्या सच है और क्या झूठ। मीडिया असल में कुछ लोगों की बाइट पर चलता है। वह जैसा कहते हैं मीडिया वैसा करता चला जाता है। आज देश के तमाम चैनलों में ऐसे बाइट सोल्जर रिपोर्टर भरे पड़े हैं जो दिमाग का कम और अपने से ऊपर खड़े सीनियर की चापलूसी ज्यादा करके, किसी भी तरह से किसी भी खबर को मसाले के साथ लगाने पर उतारू रहते हैं। अब हाल ही का अगर उदहारण लिया जाये तो इंडिया न्यूज में नये लोग काफी तादाद में हैं। मालिकों ने इसमें कुछ ऐसे लोगों को भर्ती कर ही लिया है जिनकी सिफारिशें उनके पास आयी। पिछले दिनों इस चैनल के प्राइम टाइम में दिल्ली बच्चों के लिए कितनी सुरक्षित है, इसपर खास रिपोर्ट दिखाई गई।
इस रिपोर्ट को नये रिपोर्टर ने बड़ी ही जल्दबाजी में फाइल किया, ऐसा रिपोर्ट देखकर लग रहा था, उसके ऊपर मान्यवर संजीव चौहान ने जो इंडिया न्यूज के एसआईटी प्रमुख हैं ने इतना मसाला लगा दिया कि लगने लगा कि दिल्ली में अगर बच्चे स्कूल भी गये तो चुरा लिये जायेंगे। इन्होंने पुलिस को कटधरे में खड़ा करते हुए कहा कि अगर आप दिल्ली पुलिस से गुमशुदा बच्चों आकड़ा भी मांगते हैं तो आपको 20 से 25 हजार रुपये देने होंगे। ये सुनने में बड़ा ही गलत लगता है, लेकिन जब दिल्ली पुलिस के एक आला अफसर से इस मामले में बात की गई तो मामला कुछ और ही था। दिल्ली पुलिस का इस मामले पर कहना है कि दिल्ली के हर थाने में गुमशुदा बच्चों की रिपोर्ट्स होती हैं। साल के अंत में ये हैडक्वार्टर भेज दी जाती हैं। लेकिन आप इन्हें एक साल की अवधि पूरा होने से पहले देखना चाहते हैं तो आपको पहले तो आरटीआई के माध्यम से एक पत्र दिल्ली पुलिस को भेजना होगा, इसके बाद हम लोग प्रत्येक थाने के रिकार्ड रुम से ये डाटा एकत्र कर मुहैया करवा देते हैं। लेकिन ये काम क्योंकि अलग अलग थानों में तैनात रिकार्ड रुम का व्यक्ति ही करता है तो उससे हमें ये कार्य अलग से करवाना होता है, जिसका भुगतान वह व्यक्ति करता है जिसे इस रिकार्ड की आवश्यकता होती है। ये ध्यान रहें कि वह एक साल से पहले रिकार्ड मांग रहा है अपनी जानकारी के लिए ना कि जनसाधारण के हक में। ऐसे में हम प्रत्येक थाने से मांगवायी गयी जानकारी के बदले में इस काम पर लगाये गये कर्मचारियों का न्यूनतम मेहनताना उक्त व्यक्ति पर लगाते हैं, जैसा कि भारत सरकार के आरटीआई एक्ट में वर्णित है।तो ये तो था कानून, अब हम रिपोर्ट की ओर चलते हैं। रिपोर्ट में कहा गया कि अगर इस सूचना को आप पाना चाहते हैं तो आपको 20 से 25 हजार रुपये अदा करने होंगे ये नही कहा गया कि अगर आप व्यक्तिगत रुप से इस सूचना को हासिल करना चाहते हैं तो आपको ये पैसा अदा करना होगा और अगर समाज को सूचना प्रदान करने के लिए किसी संस्था द्वारा हासिल करना चाहते हैं तो उसका आपको शायद ही कुछ देना पड़े।
मेरा यहां पर ये कहना है कि संजीव चौहान अपनी रिपोर्टटिंग के लिये आजतक में काफी चर्चा में रहे हैं। कहा तो ये भी जाता है कि चौहान साहब जब रिपोर्टिंग करते हैं तो बस करते ही है। वह सोचते नहीं है कि इसका मतलब क्या हो सकता है। आज उन्हें इंडिया न्यूज जैसे अच्छे चैनल में एक प्रमुख कार्य दिया गया है तो क्या ये उनका फर्ज नही बनता कि प्रत्येक रिपोर्ट जो उनके हाथों से तैयार होकर टीवी स्क्रिन पर आ रही पहले वह उसकी सच्चाई और हर एक छोटे - बड़े पहलू पर नजर डाल लें। ये सही है कि कई बार इलैक्ट्रोनिक मीडिया में रिपोर्टर को हर पहलू को समझने का समय नही मिलता लेकिन इसकी नैतिक जिम्मेदारी तो रिपोर्टर की ही बनती है। महज ये कहकर पल्ला झाड़ लेना कि दिल्ली पुलिस ही हर चीज के लिए जिम्मेदार है और वह अपना काम सही से नही कर रही। ये कहना को सरासर गलत है। क्योंकि आंकड़ो की ही अगर बात की जाये तो दिल्ली में देश के और दूसरे प्रदेशों और राज्यों के मुकाबले गुमशुदा बच्चों की रिपोर्टें काफी कम हैं तथा इसमें बहुत से मामलों में तो गुमशुदा बच्चें अपने घर ही वापस आ गये हैं। हां ये बात सही है कि दिल्ली में अब गुमशुदा लोगों की संख्या बढ़ती जरूर जा रही है।

Wednesday, May 21, 2008

आंखों देखी

आंखों देखी का हाल तो आपने जान ही लिया कि इसमें ऐसा क्या खास है जो आपको अपनी ओर खींच सकता है। लेकिन इसके अलावा भी एक चीज ऐसी है जो आपको अपनी और आकर्षित कर सकती है वो कुछ और नही बल्कि आंखों देखी की लोकप्रियता है।
मेरा ये अपना अनुभव है कि "आंखों देखी" को लोग किसी देश के मशहूर चैनल से ज्यादा जानते हैं। मैंने आँखों देखी के लिए दिल्ली से बाहर भी रिपोर्टिंग की है और ऐसी जगह की है जहां मुझे लगता था कि यहां आंखों देखी को कोई नही जानता होगा। लेकिन मुझे सबसे ज्यादा ताज्जुब तब हुआ जब उत्तर प्रदेश के ऐटा मैनपुरी के एक गांव में हमारे माइक को देखकर लोगों ने बड़े उत्साह से पूछा कि आप आंखों देखी के पत्रकार हो। हमने कहा हां भाई हम आंखों देखी से हैं, फिर उन्होंने बताया कि हम क्या पूरा उत्तर प्रदेश आंखों देखी को हर दिन बड़े़ ध्यान से देखता है। मुझे ये सुनकर खुशी भी हुई और ये दुख भी। खुशी इसलिये की "आंखों देखी" में किया गया हमारा काम लोगों तक पहुंच रहा है और दुख इसलिये हुआ कि इतनी लोकप्रियता हासिल कर लेना वाला कार्यक्रम कुछ लोगों की गलतनामी और नीयत के चलते खराब होता जा रहा है। अच्छे लोग आंखों देखी में आते नही और पुराने आने की हिम्मत नही करते।
इसमें शायद किसी की कमी नही हैं। असल में मैडम को आंखों देखी जैसे सरकारी चैनल को चलाने के लिए सस्ते लोगों की जरुरत रहती है। ये सस्ते लोग नये प्रशिक्षु होते हैं जो काम की तलाश में भटकते भटकते आंखों देखी चले आते हैं। युवा लोगों की नयी एनर्जी आंखों देखी को सींचती रहती है, इन्हें शहजाद पालता है और समय आने पर यही लोग आंखों देखी का पालन पोषण करते रहते हैं। इससे कार्यक्रम आगे चलता रहता है और
ये ठीक भी है क्योंकि शायद दूरदर्शन भी मैडम के आलावा आंखों देखी को किसी ओर को देना नहीं चाहता। मेरा तो ये भी मानना है कि आंखों देखी के समकक्ष भी दूरदर्शन किसी और को खड़ा नहीं करना चाहता जिससे इस कार्यक्रम को तैयार करने वालों में प्रतिस्पार्धा बढ़े।
वह तो केवल इतना चाहता है कि आंखों देखी पुराने ढर्रे पर चलता रहे और वह सरकार को एक प्राइवेट संस्था को सरकारी खर्च पर चला रहा है इसका ब्यौरा देता रहे। दूरदर्शन के लिए ये सही भी है क्योंकि दूरदर्शन को किसी से किसी तरह की कोई प्रतिस्पार्धा तो करनी नही है। वह एक ऐसा सफेद हाथी है जिसे सरकार पाल रही है और इसमें बैठे कुछ लोग इस हाथी पर सवार होकर मैडम की लगातार चापलूसी करते चले जा रहें हैं। मेरा ये कहना नही है कि वह मैडम का आंखों देखी बंद कर दें या फिर उन्हें इस कार्यक्रम से हटा दें। मेरा महज ये कहना है कि अगर आप बाहर से न्यूज सैगमेंट ले रहें हैं तो नये लोगों को भी उन्हें मौका देना चाहिए। उन्हें दूरदर्शन के लिए ऐसे लोगों को की जरूरत होती है जो सत्ता में किसी न किसी तरह से अपना वर्चस्व कायम किये हुए हैं। असल में हकीकत तो ये है कि दूरदर्शन कार्यक्रम ही केवल उन लोगों को देता है जो सत्ता में स्ट्रोंग रुप से जमें हुये हैं या फिर वह जो क्षेत्र में इतने दमदार है कि वह किसी और को यहां तक फटकने ही नही देते। इसमें दूरदर्शन की कुर्सियों पर बैठे वह तमाम बड़े अफसर भी शामिल होते हैं जो बहुत दफा रौब में और कई दफा पीछे के दरवाजे से मिलने वाली सहायता के लालच में इन्ही लोगों को कार्यक्रम दिये चले जाते हैं।
मैं केवल इतना पूछना चाहता हूं कि क्या इस देश में ऐसा कोई नहीं है जो 'रोजना' और 'आंखों देखी' जैसे कार्यक्रम तैयार नही कर सकता? क्या ऐसा कोई हिंदी पत्रकारिता में पत्रकार नहीं है जो 'आमने-सामने' जैसा प्रोग्राम तैयार नहीं कर सकता? क्या इस पूरे देश में ऐसा कोई नही है जो दूरदर्शन के लिए काम ही नही करना चाहता? ऐसे बहुत से लोग है जो दूरदर्शन के लिये फायदा भी ला सकते हैं और उसे नये आयाम तक भी ले जा सकते हैं। लेकिन हां ऐसे लोग वह है जिनका सत्ता से कुछ लेना देना नही है। वह लोग नये पत्रकार है जो अपना बजूद खोजने की कोशिश में हैं। वह छोटे -छोटे रुप में बड़े काम कर रहें हैं। अगर यहां नाम लेना जरूरी है तो मैं नाम लेकर ही बात करता हूं। क्या 'डीआईजी, कोबरा पोस्ट, तहलका,' ऐसी वह संस्था नहीं हैं जिन्होंने हिंदी और खासकर के खोजी पत्रकारिता को नया आयाम दिया है। अगर दूरदर्शन निष्पक्ष रूप से इन संस्थाओं को न्यूज बूलेटिन बनाने और खोजी पत्रकारिता करने के लिए बढ़ावा दे तो क्या इनमें से कोई है जो काम करने के लिए इंकार कर दें। लेकिन सरकार की ही नीयत में खोट हो तो फिर पत्रकारिता की सेवा करने वाले क्या कर सकते हैं। वह दूरदर्शन में ऐसे लोगों को चाहती है जो उसके तलवे चाटते रहें। वह उनकी वाह वाही में रात दिन एक कर दें। इसका सीधा सा अर्थ है कि दूरदर्शन ये चाहता ही नहीं है कि वह निष्पक्ष पत्रकारिता करें। वह तो केवल सरकारी पिठ्ठू बना रहना चाहता है। शायद यही कारण भी रहा है कि दूरदर्शन लगातार हर सरकार के लिए घाटे का सौदा ही साबित हुआ है। हालांकि दूरदर्शन के पास आज किसी भी देश के दूसरे चैनल से ज्यादा उम्दा उपकरण और तकनीके हैं, लेकिन वह केवल डब्बों में बंद ही रहती है। वह किसी के काम नही आती। ज्यादा से ज्यादा इसका प्रयोग देश में होने वाले सरकारी कार्यक्रमों में होता है या फिर ऐसी राजनैतिक रैलियों में जिनका संबंध देश की सत्ता से होता है।
ये तो बात थी, दूर से दर्शन करने वाले दूरदर्शन की, लेकिन फिलहाल हमारा विषय दूरदर्शन नहीं "आंखों देखी" है। तो आंखों देखी की लोकप्रियता आपके प्रभावित कर सकती है। ऐसा इसलिये भी है कि आंखों देखी में जो भी काम करता है वह यह सोचकर करता है कि उसके जीवन का ये पहला कदम है और वह इस कदम के मजबूती से रखना चाहता है। इसका फायदा नये लोगों को भी होता है और आंखों देखी को भी।
नये लोगों के लिए मेरा ये कहना है कि अगर वह आंखों देखी को अपना पहला कदम बनाने की बात सोचते हैं तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है लेकिन वह केवल इसे एक ऐसे संस्थान के रुप में लें जहां वह मात्र 30 दिन तक रहें। इतने दिनों में वह लगभग इलैक्ट्रोनिक मीडिया की बारिकियां जान ही जायेंगे। इसके बाद वह अपना नया टारगेट खोज लें। क्योंकि आंखों देखी किसी भी नये पत्रकार या पुराने का भी "लक्ष्य" तो हो ही नही सकता। अगर फिर भी कोई इसे अपना लक्ष्य बनना ही चाहे तो भैय्या इसमें हम तो इतना ही कह सकते हैं कि ठीक है हर किसी को मुकम्मल जहां नही मिलता सभी को आजतक और स्टार न्यूज नहीं मिलता।
लेकिन नये लोगों से मेरा यही निवेदन है कि आज उनके लिये बहुत से ऑप्सन हैं। वह सीधे चैनलों को एपरोच कर सकते हैं। उन्हें यहां जाने की जरूरत ही नहीं हैं।
देश में आज ऐसे बहुत से नये और पुराने चैनल हैं जो नये लोगों को प्रशिक्षण और फिर नौकरी देने से गुरेज नहीं करते। इन चैनलों में ऐसे लोग भी है जो नये लोगों की कद्र करना जानते हैं। यहां मैं उन लोगों की ही बात करूं तो न्यूज 24 में अजीत अंजूम, इंडिया टीवी में प्रशांत टंडन और स्टार न्यूज में साजी ऐसे लोगों में से हैं जो नये लोगों को हाथों हाथ लेते हैं और उन्हें काम करने का मौका भी देते हैं। सहारा खुले तौर पर नये लोगों की भर्ती करता है तो जी न्यूज की वेबसाइट से ही आप नौकरी पा सकते हैं। इसके अलावा आज इंडिया न्यूज तो नये लोगों पर ही चल रहा है। हां ऐसे देश में दो चैनल हैं जिनके अंदर जाना बेहद मुश्किल है। पहला है एनडीटीवी इंडिया और दूसरा है आईबीएन7। ये दोनों ही ऐसे चैनल हैं जहां "बाबाओं" का जमधट है। यहां पर आपको उपदेश मिलेंगे लेकिन काम नही। हां अगर आपकी पहुंच है और आप किसी के भाई भतीजे या फिर जानकार है तो आपको कहीं भी काम मिल ही जायेगा। एनडीटीवी इंडिया में तो नये लोगों के लिए काम लगभाग है नही। मैंने पिछले कई सालों से नही देखा कि इस चैनल ने खुले तौर पर कभी नये लोगों को अपने यहां काम देने की बात कही हो। हां अगर यहां पर भी आपका अगर कोई हितेषी (जुगाड़) है तो आपको यहां क्या देश के किसी भी बड़े चैनल में काम मिल ही जायेगा। बाकी यहां अधिकतर लोग ऐसे परिवारों से हैं जिनके लिय़े पत्रकारिता मिशन नही बल्कि ऐसा काम है जिससे उन्हें लोकप्रियता मिलती है और समाज में इज्जत। इस काम को वह इसलिये भी करते हैं कि राजनीति में लोग उनके नाम को पहचाने।
इसमें से कुछ लोग तो खबरियां चैनल के माध्यम से अगले चार पांच साल में देश के किसी छोटे राज्य के मुख्यमंत्री तक बनने के सपने देख रहें हैं। अगर आज आपको मेरी बात का यकीन नहीं हो रहा तो ये मेरा दावा है कि अगले चार पांच सालों में गोवा का मुख्यमंत्री देश का ऐसा पत्रकार होगा जिसे लोग आज हर दिन टीवी पर देखते हैं। इस पत्रकार ने गोवा में अपने आपको इस तरह से परमोंट करना आरंभ किया है कि गोवा के लोगों की सोच अब इस पत्रकार के पक्ष में जा रही है। ये पत्रकार हफ्ते के दो दिन यही पाया जाता है। तो आज पत्रकारिता महज सत्ता पाने का हथियार ही नही है बल्कि इस देश पर राज करने का औजार भी होती जा रही है। ऐसे में ये चैनल नये लोगों को काम कैसे दे सकते हैं।
नये लोगों को अपने लिये ऐसे संस्थानों का चयन करना चाहिए जो उनके काम को सराहे भी और समय आने पर उनकी मदद भी करे। मेरा ये कहना है कि आज के युवा उन चैनलों को देखें जो नये हैं क्योंकि नये चैनल बेशक अभी खड़े हो रहें हैं लेकिन जब वह पूरी तरह से खड़े हो जायेंगे तो इनसे जुड़े नये लोगों को भी वह स्थापित कर देगा। ऐसे में नये लोगों को पहचान भी मिलेगी और काम भी।
अब मैं यहां बताना चाहूंगा कि इलैक्ट्रोनिक मीडिया में संपादक जिसे बहुत सी जगह ईसी यानी एडिटोरियल चीफ या फिर असाइनमेंट हैड के रूप में पहचाना जाता है, किस तरह की रिपोर्टिंग चाहता है। अगर आप आंखों देखी में काम कर रहें हैं तो शहजाद आपसे चाहेंगा कि आप कोई ऐसी सनसनी लेकर आओं जो देखने वालों में कपकपी पैदा कर दे। अगर आप कहीं और हैं तो आपको पहले अपनी बीट को समझना होगा। बीट से मेरा मतलब ये है कि जब आप कही भी काम करते हैं तो वहां के हेड आपसे ये जरुर पूछेगा कि आपका सबजेक्ट क्या रहा है। अगर आप विज्ञान के छात्र रहें हैं तो आपको ऐसी रिपोर्टिंग दी जा सकती है जो विज्ञान की खबरों से जुड़ी हो, अगर आप अर्थ या व्यापार में जानकारी रखते हैं तो आपको बिजनेस रिपोर्टिंग दी जा सकती है। इसके अलावा राजनैतिक और अपराध बीट पर हर आदमी काम करना ही चाहता है। क्योंकि देश का हर एक नया युवा ये मानकर चलता है कि उसे दो ही चीजों की सही जानकारी है। पहली राजनीति की दूसरी देश के अपराध की, लेकिन ये हमेशा सही नही होता। अक्सर जोश में हम ये भूल जाते हैं कि हम असल में किस विषय की जानकारी रखते हैं। हम वही करने लग जाते हैं जिसकी सबसे ज्यादा डिमांड होती है। ऐसा जब होता है तभी नये लोगों का ह्रास होना आरंभ हो जाता है। क्योंकि नये लोग ये नहीं समझ पाते कि वह कौन सा कार्य है जिसे वह आसानी से कर सकते हैं। वह ये समझते हैं कि वह एक पत्रकार हैं जो सभी कुछ जानता है। ऐसा जब कभी भी होता है तभी नये लोग "बाइट सोल्जर" बनते चले जाते हैं। वह फिर ना तो अपने द्वारा सोची गयी स्टोरी को सही रुप दे पाते हैं और न ही अपनी सोच के मुताबिक स्टोरी ही लिख पाते हैं। वह अपने विषय से भटकते चले जाते हैं और एक ऐसी जगह पहुंच जाते हैं जहां वह पत्रकारिता में मात्र एक कामगार बनकर रह जाते हैं। मेरा ये कहना है कि हमें वही काम करना चाहिए जिसे हम अच्छी तरह से कर सके। ऐसा ना हो कि कार्य करते रहने के बाद हम अपने आप से कहें कि यार उस फलां आदमी ने कहां फंसा दिया।
पत्रकारिता का नाम ही फंसना है और फिर उससे बाहर आना। जी हां, पत्रकारिता का मतलब ही है कि हम ऐसे विषय उठाये जिनकी जानकारी साधारण आदमी को न हो, हम उन तक वह खबर पहुंचाये जिससे वह अनिभिज्ञ हैं। हमारा काम ही है कि ऐसी जानकारियां लेकर आये जिससे समाज को अपने आपको देखने और समझने का मौका मिले।
नये लोगों को चाहिए कि वह ऐसी दमदार रिपोर्टिंग करें जिससे उनके कैरियर को दिशा मिले ना कि वह उन्हें अंधेरे में ले जाये। क्रमश:

Tuesday, May 20, 2008

यूं तो उन दिनों की आंखों देखी में ऐसा बहुत कुछ था जिसे में अपने आने वाले उन पत्रकार साथियों का बताना चाहूंगा जो आंखों देखी संस्था में जाना चाहते हैं। लेकिन मैं यहां केवल उन घटनाओं को सामने रखना चाहूंगा जो मेरी आंखों के सामने ही घटित हुईं। हमारे असाइनमेंट इंचार्ज होते थे श्री दुष्यंत कुमार जी, वह इन दिनों दैनिक हिंदुस्तान में कार्यरत हैं। आंखों देखी में हमारे एक और इमिडियेट बॉस होते थे जो स्टोरी फाइनल किया करते थे और उन दिनों शायद प्रोग्राम हेड भी थे। अनंत मित्तल साहब। मेरी अनंत मित्तल जी से ज्यादा बातचीत नहीं हुई और ना ही उन दिनों भी होती थी। लेकिन स्टोरी चूंकि वही फाइनल किया करते थे तो एक दो बार उनसे भी मैंने डांट खाई है। खैर वह सीखने के दिन थे और उन दिनों सभी सीनियर अपने जूनियर्स को डांटते ही है जैसा कि दुनिया का दस्तूर भी है और नियम भी। अनंत मित्तल और दुष्यंत उन दिनों एक दूसरे के काफी गहरे दोस्त हुआ करते थे शायद अभी भी हैं। आंखों देखी में चूंकि ये दोनों ही बड़े पद पर थे तो मैडम का प्यार भी और दुत्कार भी इन्ही पर ज्यादा था। मुझे याद है दुष्यंत जी और मित्तल साहब को जब तनख्वाह नहीं दी गई और उन्हें आंखों देखी से रूखसत किया गया तो शहजाद के चेहरे पर बड़ी ही कुटिल हंसी थी। वह हमसे बोला कि चले गये 'साले' अपने आप को बहुत बड़े पत्रकार समझते थे। मैं यह बात इस दावे से भी बोल रहा हूं क्योंकि उस दिन दिनेश पाठक जो आज तक आंखों देखी में अपनी ऐढ़िया रगड़ रहें हैं वहीं मौजूद थे। दिनेश पाठक का तारुफ ये है कि दिनेश पाठक जी आज से छह साल पहले तक गंजे हुआ करते थे। इनके मुख के भीतर कुबेर की गोली हमेशा लगी रहा करती थी और जब भी मौका मिल जाया करता था यह फ्री की चाय जो अक्सर शहजाद मंगवाया करता था पी लिया करते थे। दिनेश पाठक ने अभी दो साल पहले शादी के बाद ही अपने सर पर नकली बालों की खेती करवायी है। सुना है उनकी बीबी को उनका गंजा सर अच्छा नही लगा करता था तो उन्होंने इसी के चलते अपने सर पर बालों की खेती करवा ली। खैर हम बात कर रहें थे दिनेश के तारूफ की तो दिनेश मेरा अच्छा दोस्त हुआ करता था लेकिन मुझे हमेशा से ऐसा क्यों लगता रहा कि दिनेश के शरीर में न पहले कभी रीढ़ थी और न ही आज है। वह शहजाद का न जाने कैसे और कब इतना बड़ा चेला बन गया कि पूरी मीडिया को आज तक कभी चमचों की मिसाल देनी होती है तो वह दिनेश पाठक की दी जाती है। कहा जाता है साला चमचा हो तो दिनेश पाठक जैसा हो जिसे जितना भी दुत्कारों शाम को आकर मालिक के पैर चाटेगा ही चाटेगा। अब इस लेख को पढ़ने के बाद बेशक वो मेरा दोस्त तो रहेगा नही लेकिन कम से कम उसे अपनी छवि जरूर दिखाई देगी। अगर ऐसा हो जाये तो मेरे लिये ये भी संतोष की बात होगी क्योंकि उसे कम से कम अपनी असल शख्सियत का तो अहसास हो जायेगा और वह आंखों देखी से बाहर आकार देखने की कोशिश करेगा। अब हम वापस आते हैं दुष्यंत और अनंत पर। दुष्यंत जी और मित्तल साहब की नौकरी छोड़ दी या छुड़वा दी गई। मैडम का कहना था कि इन दोनों आदमियों को काम करना नहीं आता यानी स्टोरी लिखनी नहीं आती। ये मैडम ने किस आधार पर कहा ये बात वहीं अच्छी तरह समझा सकती है। क्योंकि मैडम के लिये कौन सी स्टोरी सही है और कौन सी गलत इसका अंदाजा आंखों देखी में आज तक कोई नही लगा पाया तो हम और हमारे ये दोनों शो-कॉल्ड बास कैसे लगाते। तो दोनों ही लोगों को रुखसत कर दिया गया और इनकी तनख्वाह भी नही दी गई। बैसे मैडम का ये रुल भी है कि वह जब कभी भी किसी से नाराज होती है तो उसकी तुनख्वाह वह किसी भी हाल में नही देती, चाहे फिर कोई उनका बीस साल से पुराना ड्राइवर हो या फिर नया रिपोर्टर। वह सभी को एक ही तराजू में तौल देती हैं। ऐसा इसलिये भी है क्योंकि मैडम को आजतक देश में कोई अपने आप से बेहतर पत्रकार दिखाई ही नही देता। दुष्यंत जी को जब जवाब दिया दिया गया तो हमने भी अपने रास्ता खोजना आरंभ कर ही दिया था। उन्हीं दिनों दुष्यंत जी और मित्तल साहब ने अपनी तनख्वाह लेने के लिए एक कोर्ट से नोटिस भी भेजा था जिसका जवाब मैडम ने आज तक नहीं दिया। अगर दिया होता तो दुष्यंत जी को अपनी सैलरी मिल गई होती। हालांकि मेरे दोनों सीनियर्स ने बाजार में यही कहा कि हमने अपने पैसे ले लिये, लेकिन शहजाद ने हमे जो बताया वो कुछ इस तरह से है। अगर ऐसे मैडम हर ऐरे गैरे नत्थू खैरे को पैसे देने लगी तो बस चल ली आंखों देखी। उन्होंने आज तक अपने बीस साल पुराने ड्राइवर को तनख्वाह समय पर नही दी वह इन्हें कल के काम करने वाले भूक्खड़ पत्रकारों को पैसें दे देंगी। मित्तल साहब तो कई बार ये भी कहते पाये गये कि उन्होंने मैडम से माफी मंगवा ली जवकि हकिकत ये है कि मैडम ने मेरे इन दोंनों सीनियर्स को बाहर का रास्ता दिखाने के बाद इन लोगों से कभी फोन पर भी सही से बात नहीं की। ये बाते हमें शहजाद से ही पता चला करती थी। वहीं सुबह हमें सारी बाते बताया करता था। हालांकि इसका आज मेरे पास कोई सबूत नहीं है लेकिन ये सच है कि शहजाद हमें पल पल की खबर दिया करता था और वही हमें बताया करता था कि आज क्या हुआ कल क्या होगा। हालांकि वह तो इसलिये बताया करता था कि इसमें उसे लगता था कि ये मेरी शान है। वह इसलिये भी हमें बताया करता था कि हमें हमेशा ये याद रहे कि उससे पंगा लेने वाले का वह क्या हाल करवा सकता है। क्योंकि जिस तरह से वह मित्तल और दुष्यंत जी की बात किया करता था उससे तो यही लगता था कि मैडम फोन पर ही दोनों की ठीक तरह से क्लास ले ही लिया करती होंगी। खैर हर व्यक्ति की सोच अलग होती है स्वाद अलग होता है और पसंद अलग होती है। मैडम को शहजाद जैसे लोग चाहिए तो वह उन्हें मिल ही रहें हैं और आज तक वह काम भी कर रहें हैं। लेकिन सवाल ये उठता है कि हम जैसे युवा लोग जो अपने भविष्य को इन संस्थानों में खोजते हैं। उन्हें क्या ऐसे संस्थानों के बारे में और वहां के काम करने वालों के बारे में पूरी जानकारी हासिल नही कर लेनी चाहिए। मेरा ये मानना है कि कोई भी युवा पत्रकार खासकर के आजका पत्रकार इतना बेवकूफ तो हरगिज नही हो सकता जो पहले ऐसे संस्थानों के बारे में पता नहीं करना चाहेगा। अब एक दो लोग जो गांव देहात से आकार यहां शहर में किसी भी तरह से स्थापित हो जाना चाहते हैं उनके लिए पहला कोई भी अवसर अपने आप में बड़ा ही होता है। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। मैं ग्रामीण पृष्ठभूमि से आया साधारण युवक था और इंटर्नशिप के साथ जो भी मिल गया कबूल कर लिया। खैर मेरा मकसद केवल नये लोगों को ऐसे संस्थानों और वहां काम करने वाले लोगों से आगाह करवाने का है, इसके बाद भी मर्जी युवा लोगों की है कि वह मेरी बात माने या न माने। आखिर मैं किसी के भविष्य का फैसला करने वाला होता कौन हूं। तो चलिये अब हम आपको बताते हैं कि आंखों देखी में जाने से पहले आपको क्या करना होगा और आंखों देखी जब आप जायेगे तो पहल पहल आपको क्या दिखाई देगा। दो हैली रोड़ पर मैडम ने अपना प्रोडक्शन हाउस लगाया हुआ है। हालांकि सरकारी फरमान के मुताबिक किसी भी ऐसी दो हैली रोड़ जैसी रिहायशी इलाके में बिजनेस कार्य करना अनैतिक है। लेकिन मैडम को कोई फर्क नही पड़ता क्योंकि सरकार का आदमी और सरकार दोनों उनके कंट्रोल में रहती ही है। इसका अर्थ ये भी हो सकता है कि मैडम की सरकार में आज भी इतनी चलती है जितनी की एनडीए के कार्यकाल में चला करती थी। आज भी आंखों देखी दूरदर्शन पर ठीक उसी तरह से टीका हुआ है जिस तरह से संसद में महिला आरक्षण बिल, जो हर बार पास होने की कगार तक तो पहुंचता है लेकिन पास नहीं होता, ठीक बैसे ही आंखों देखी को दूरदर्शन टाटा तो कहना चाहता है लेकिन कह नही पाता। कहे भी तो कैसे मैडम का रौब और नाम से दूरदर्शन में आधे से ज्यादा अफसरों की हवा गायब रहती है। खैर कुछ भी हो आंखों देखी चल रहा है और दनदना कर चल रहा है। वहां लोग काम भी कर रहें हैं और पत्रकारिता भी सीख रहें हैं। तो भाईयों जब आप दो हैली रोड़ में कदम रखेंगे तो आपको एक पुराने से घर के आंगन में एक बूढ़ा आदमी सफेद जंधी और पयजामा पहने लकडी की कुर्सी पर बैठा मिलेगा। यह आदमी अक्सर अखबार पढ़ता या उंधता सा मिलता है कभी - कभार वह आपकी तरफ मात्र देखेगा कहेगा कुछ नही। वह आपको ऐसे देखेगा जैसे एक शिकारी किसी शिकार को जाल में आता हुआ देखता है। लेकिन उसका मकसद आपका शिकार करना नहीं होगा वह आपको देखकर कभी मुस्कुरा भी सकता है और कभी आपको अनदेखा भी कर सकता है। यह आप पर निर्भर करता है कि आपकी पर्सनल्टी कैसी है। ये सज्जन मैडम के पति है। इनका आंखों देखी और मैडम के किसी भी कार्य जो आंखों देखी से जुड़ा है किसी भी तरह से कोई लेना देना नही है। इसके बाद आपको गेट के भीतर मैडम का ड्राइवर तंबाकू खाता मिल जायेगा और एक दो बेकार के लोग भी यहां देखने को मिल सकते हैं जो केवल यहां अपने किसी परिचित से मिलने आये होते हैं। इसके बाद आप सामने एक शीशे का पुराना दरवाजा दिखेंगे जो बहुत सी जगह से टूटा हुआ होगा और इसे खोलते ही आपको एक भंयकर आवाज ------कीर्र कीर्र कीर्र सुनाई देगी जो आपके दांत यहां कदम रखते ही खट्टे करने के लिए काफी होगी। इसके बाद आपके घुसते ही उल्टे हाथ पर एक टेबल दिखाई देगी जो आपको आदिकाल की याद दिला देगी। इस टेबल पर आपको एक लाल और एक ब्राउन रंग का एमटीएनएल का फोन दिखाई देगा। यहीं पर कोई रिपोर्टर आपको अपनी स्टोरी लाइन अप करता भी दिखाई दे सकता है। यहां पर आपसे पूछा जायेगा कि आपको किससे मिलना है। यहीं से आपको ठीक सामने एक काला अधेड़ आदमी दिखाई देगा जो गंजा और एक थका थका सा दिखाई देगा। इसके मुंह के दोनों कोने से झाग निकलता रहता है और इसका पेट थोड़ा सा निकला हुआ होगा। ये आदमी आपको एक नजर में बीमार दिखाई देगा। इस आदमी का नाम नईम अख्तर है जो पिछले 15 - 16 साल से यही पाये जाते हैं। ये हर आने जाने वाले को बड़े ही ध्यान से देखते हैं। इनके पीछे कुछ नये लोग होते हैं जो बेकार की बातों में व्यस्त होते हैं क्योंकि यहां दोपहर एक बजे से पहले कोई काम ही नहीं होता। वह इधर -उधर की बाते करते हैं और उनके पीछे के एक कोने में आपको छत से कुछ ही नीचे लटकता हुआ एक ऐसा AC दिखाई देगा जो कभी नहीं चलता और ठीक उसी के नीचे आपको रद्दी का ढ़ेर दिखाई देगा। ये दफ्तर का एक हिस्सा है। यूं तो सारा ऑफिस ही बहुत शानदार है जिसमें से लगातार मछर मार दवा की बदबू आती रहती है। इसी के बीच मे आपको एक आदम काल का कम्प्यूटर दिख जायेगा जिसपर चार पांच लोग काम करते दिखेंगे। ये आपस में इसी बात पर लड़ते रहते हैं कि आज इस कम्प्यूटर का की-बोर्ड कौन प्रैस करेगा। इसपर काम शाम के समय बढ़ जाता है जब मैडम को तीन मिनट की आंखों देखी को दो मिनट मे निपटाना होता है। इसपर स्टोरी फाइनल होती है और मैडम के हाथों द्वारा लिखा गया एंकर बड़े मोटे शब्दों मे लिखा जाता है ताकि मैडम की आंखों को और उनकी आंखों पर लगे कंटेक्ट लैंस को ज्यादा मेहनत न करनी पड़े। इसके बाद आपको शहजाद साहब मिलेंगे जो साथ वाले मैडम के कमरे के साथ बने एक और कमरे में रहते हैं। रहने से मेरा मतलब ये भी है कि वह अक्सर वही मिलते हैं। इन्हें देखकर आपको किसी ऐसे 70 के दशक के हीरों की याद आ जायेगी जो पैदा तो पचास मे हुआ था लेकिन वह 2008 तक बूढ़ा नहीं होने की कसम खाये पर्दे पर लगातार 18 साल की हीरोइन का हीरो बनकर आने पर उतारू हो। लंबे - लंबे काले किये हुए बाल, चेहरे में घंसी हुई छोटी - छोटी आंखें और गंदे से ऊंचे दांत वाला ये आदमी जैसे ही आपके सामने आयेगा पहले तो आपको इसके कपड़ो से एक डीयों की खुशबू आयेगी लेकिन जैसे ही आप इसके निकट जायेगे आपको समझ में आ जायेगा कि इसने अपने शरीर और कपड़ो पर डीयो क्यों लगाया हुआ है। इसका मुंह आपको सुबह-सुबह रात खाये किसी पार्टी के बदबूदार चिकन की याद दिला देगी जो सुबह तक शहजाद के जबड़ो में फंसा रहता है और रात को जब तक उस पुराने मुर्गें की जगह नया नही ले लेता वह पुराने का साथ नहीं छोड़ता। ये आपसे प्यार से बात करेगा क्योंकि वह जानता है कि आप ही वह फ्री का मुर्गा हैं जिसे वह अगले तीन चार महीने तक अराम - अराम से काटेगा और अपनी पसंद का काम करवायेगा। आपको लगेगा आपका उद्धार हो गया। आपको काम मिल गया। आप इसके बाद यहां पानी पीने की इच्छा जाहिर करेंगे तो आपको यहां रखी कुछ पुरानी बोतलों से पानी दिया जायेगा, जिनका प्रयोग मैडम ने कभी अपनी प्यास बुझाने के लिए खरीदा था लेकिन इनका पानी पीने के बाद मैडम को दफ्तर याद आयी तो उन्होंने इन बोतलो को फेंकना गवारा नहीं समझा और इन्हे दफ्तर में लाकर रख दिया। अब इन खाली बोतलों का इससे बढ़कर और अच्छा क्या प्रयोग हो सकता है। इसके बाद अगर आपका दिल थोड़ा हल्का होने का कर जाये तो फिर आपको एक कोना दिखा दिया जायेगा। वहां पर मैडम का नौकर और खानश्यमा भी रहता है। वही पर आपको एक टूटा हुआ दरबाजा दिखाई देगा जो कब गिर जायेगा किसी को नहीं पता। यही वह जगह है जहां आपको हल्का होना है। इसका हाल आपको किसी ऐसे टॉयलेट की याद जरूर दिला देगा जहां आप गये तो सांस लेते हुये थे और आये रोककर थे। यहां पर आपको पब्लिक शौचालय का पूरा आनंद मिलेगा और साथ ही प्रणायम का सूख भी क्योंकि यहां आप सांस बाबा राम देव की तरह से लेंगे और छोड़ेगे। यहां मैं आपको एक बात से अवगत और करवा देना चाहूंगा कि यही वो जगह भी है जहां से आंखों देखी के स्टाफ के लिये पीने का पानी जाता है। यही पर एक अधर में लगा नल्का है जिसमें म्यूनिसिपल्टी का पानी आता है। यहीं पानी स्टाफ को पीना होता है। इस पानी को मैडम नहीं पीती हां उनकी गाड़ी इस पानी से जरूर धुलती है। इसी पानी से पौधों और यहां काम करने वाले लोगों की सिंचाई भी की जाती है। अब जब आप यहां आ ही जायेगे तो चाय भी जरूर पीना चाहेंगे। चाय यहां पर बाहर से आती है। बाहर यानी दफ्तर के बाहर ही सड़क पर एक बहादुर है जो दो हैली रोड़ की दीवार के उस पार टक टकी लगाये देखता रहता है और पुरानी चाय पत्ती को उबालता रहता है कि कब आंखों देखी से कोई चाय का आर्डर आये। इस चाय का बिल दफ्तर नहीं देता आपको अपनी जेब से भरना होता है। यही पर दीवार के साथ आपको भैया जी की दुकान भी मिल जायेगी जो पान बीड़ी सिगरेट के साथ गुटखों की सप्लाई आपके लिये दफ्तर के भीतर ही कर देंगे। अगर आपके पास पैसे नहीं भी हैं तो कुछ दिन का उधार भी ये कर ही लेते हैं। तो फिलहाल की आंखों देखी में सिर्फ इतना ही इसके बाद आपको किस तरह की रिपोर्टिंग यहां करनी है इसकी जानकारी आपको दी जायेगी। तो फिलहाल दीजिये इज्जात और इंतजार कीजिये आंखों देखी की तीसरी कढ़ी का जो आपको जल्द ही पढ़ने को मिल जायेगी।

Monday, March 3, 2008

आंखों देखी का आंखों देखा हाल



ब्लोगर जगत में पहले कदम के साथ में भी अब ब्लोगर दुनिया का हिस्सा हो चला हूं। यूं तो मैं लिखने की कई सालों से कोशिश में था, लेकिन ब्लोगर की पूरी जानकारी नहीं होने और अपने हाथ में कम्प्यूटर नहीं होने की वजह से शायद मुझे ब्लोगर लिखने में देरी हुई। लेकिन आज मैं भी ब्लोगर की दुनिया का हिस्सा हूं। मुझे इस बात की आज बेहद खुशी है और अपनी किस्मत पर फक्र है कि आज हमारे हाथ मे ब्लोगर जैसी ताकत है जिसके माध्यम से हम अपने दिल की बात सारी दुनिया के सामने ऱख सकते हैं। लोगों से न सिर्फ बातें कर सकते हैं बल्कि उनसे अपनी समझ और ख्यालातों पर राय भी बेहद सुलभ और आसन तरीके से प्राप्त कर सकते हैं।
मैंने अपने ब्लोगर की शुरूआत बेहद खास तरीके से करने की कोशशि की है, मेरा ये मानना है कि पहले आदमी को अपने पर बीती हुई चीजों को अपने सामने रख लेना चाहिए, इससे होता ये है कि आप अपने आपको ठीक से देख पाते हैं।
इसका अर्थ ये भी हो सकता है कि आप अपने सामने एक ऐसा आईना रख लेते हैं जिसमें आपकी शख्सियत बिल्कुल साफ- साफ दिखाई देती है।
मैं पहले पत्रकारिता के क्षेत्र में अपबीती अपने ब्लोगर पर रखने जा रहा हूं, साथ ही मैं इस बात को भी यहां साफ करना चाहूंगा कि ये मेरे अपने पत्रकारिता के अनुभव हैं और ये उस समय की बातें हैं जब में पत्रकारिता आरंभ कर ही रहा था। मैं एक प्रशिक्षु था तो मेरे लिए ये भी आवश्यक था कि मैं पहले अपने प्रोफेशनल की आस पास की चीजों को ज्यादा से ज्यादा समझ लूं। मेरा पत्रकारिता का शुरूआती अनुभव कुछ ज्यादा अच्छे नहीं रहें। मैं लगातार आजतक ये ही सोचता रहा कि आखिर युवा पत्रकारिता में आने से पहले इसके नफे नुकसान क्यो नहीं सोचते। इसीलिये शायद मैंने अपने ब्लोगर में “पत्रकारिता का सच” पेश करने की कोशिश की है। ये वो सच है जिसें मैं आज ज्यादा पास से जानता हूं। क्योंकि राह पार कर चुका पथिक ही रास्ते की सही जानकारी दे सकता है।
मेरा मकसद अपने ब्लोगर के माध्यम से नये लोगों को पत्रकारिता की जानकारी देना मात्र है, साथ ही उन लोगों के चेहरे “बेनकाब” करना भी है, जो पत्रकारिता की आढ़ में “दलाली” करते हैं और देश के लोगों को गुमराह करते रहें हैं और लगातार कर रहें हैं।
पत्रकारिता उन लोगों के लिए मिशन नहीं है बल्कि हाथ में आयी वो तलवार है जिसके आधार पर वह इस देश पर राज करना चाहते हैं।
मेरा अपनी आने वाली पत्रकारिता की पीढ़ी से अनुरोध है कि वह इन लोगों से सावधान रहें और अपना कैरियर इनके माध्यम से आरंभ न करें। क्योंकि ये वह लोग हैं जो आज भी सामांतवादी सोच के शिकार हैं। ये ऊपर से बहुत सभ्य दिखाई देते हैं, लेकिन ये वह इंसानी भे़ड़िये हैं जो समाज को तो नोच-नोच कर खा ही नहीं रहें बल्कि पत्रकारिता का चीर हरण करके उसका लगातार परिहास उड़ा रहें हैं।
मेरे साथियों मेरा आपसे अनुग्रह हैं कि आप अपनी राह चुनने से पहले ये अवश्य तय कर लें कि आखिर आपको जाना कहां हैं।
हर क्षेत्र की तरह पत्रकारिता में भी कम बूरे और बहुत अच्छे लोग हैं। लेकिन दुख इस बात का है कि बहुत से अच्छे लोग होने के बाद भी पत्रकारिता में कोई किसी की मदद नहीं करता और हिंदी पत्रकारिता में तो बिल्कुल भी नहीं।
वैसे भी हिंदी के लोग कुछ ज्यादा ही “समझदार” होते हैं, वह हमेशा ये कोशिश करते हैं कि उनके नीचे का आदमी कभी ऊपर न आये। यहां मुझे एक दोस्त जो इन दिनों आजतक में कार्य करता है। वह कहा करता था कि “किसी बड़े होने से कोई छोटा नहीं होता” लेकिन पत्रकारिता में अगर कोई बड़ा हो जाता है तो वह अपने से नीचे वाले को तो कम से कम कभी बड़ा नहीं होने देगा। ये मेरा मानना भी है और दृण विश्वास भी कि कभी भी अपने सबसे पास के आदमी पर पत्रकारिता में विश्वास नहीं करना चाहिए। क्योंकि वही आदमी आपके बॉस से आपकी चुगली कर आयेगा और आपकी नौकरी खा जायेगा। पत्रकारिता में कुछ लोग ऐसे भी है जो जिंदगी की हर राह पर आपको अपने पास खड़े हुये दिखाई देंगे।
खैर ये अपने – अपने व्यक्तिगत अनुभव की बातें हैं।
मैं आपको पहले अपनी पहली नौकरी “आंखों देखी” के बारे में बताना चाहूंगा। आंखों देखी का मेरे लिये ऐसा अनुभव है कि उसका भूत आजतक मेरे सर पर सवार है। मैं जब भी अपनी आंखें बंद करता हूं मुझे आंखों देखी का वह बीता एक- एक पल ताजा हो आता है जो वहां बीता। हालांकि मेरी दूसरी नौकरी आंखों देखी की बदौलत ही थी, लेकिन कहते हैं ना पहली गर्लफ्रेंड, पहली बेचलर पार्टी और पहली रात आदमी ताउम्र नहीं भूलता। इसीलिये मैं भी आंखों देखी को अपनी गर्लफ्रेंड मान चुका और ये भी मान चुका की ये वही गर्लफ्रेंड है जो कालेज में समोसा-चाय तो मेरी ही पाकेट से खाया करती थी लेकिन कालेज के बाद जीवन की तपती धरती पर पैर रखने से पहले ही किसी रहीस जादे की गोद में जा बैठी।
मैंने सन् 2000 में अपनी दैनिक हिदुंस्तान से इंटर्नशिप पूरी की, चूंकि इलैक्ट्रोनिक मीडिया भी उन दिनों देश के दरबाजे पर मजबूती से दस्तक दे ही रहा था। इसलिये हमने भी मौका देखकर चौका मारा और आंखों देखी में इंटर्नशिप करने के लिये जा पहुंचे। यहां पहले दिन हमें श्री दुष्यंत कुमार जी मिले जो आंखों देखी के उन दिनों ब्यूरो हेड थे, इनके साथ ही अनंत मित्तल भी कार्यरत थे। चूंकि मेरी पहली मुलाकात दुष्यंत कुमार जी से ही हुई थी, तो मैं दुष्यंत कुमार जी के ही निकट था। आंखों देखी में उन दिनों मेरे कई साथी रहें उनमें से दिनेश पाठक भी थे जो आज भी कहने के लिए मेरे दोस्त हैं। वह आज भी आंखों देखी की सेवा में हैं। सुना है इनदिनों वहीं आंखों देखी के ब्यूरो चीफ हैं।
मैं अपने ब्लोगर में केवल पत्रकारिता की बात ही करूंगा, इसमें मैं पहले अपने अनुभव इस ब्लोगर के माध्यम से आप लोगों के सामने रखने जा रहा हूं। मैं चाहता तो बहुत कुछ लिखना हूं। लेकिन ब्लोगर आरंभ में केवल इतना ही कहना चाहता हूं कि मेरे ब्लोगर को कृपया वह लोग न पढ़े जो ये मानते है कि पत्रकारिता महज एक कार्य है।
मेरा मानना है कि पत्रकारिता केवल रोजी रोटी का जरिया ही नहीं है बल्कि ये वह ताकत है जिसके साहरे हम युवा लोग इस देश का तरक्की की राह दिखा सकते हैं।
चूंकि मैं एक हिंदी पत्रकार भी हूं तो मेरा मिशन हिंदी की सेवा करना भी है और हिंदी की सेवा तभी संभव है जब इंटरनेट बाबा की शरण में हिंदी में ज्यादा से ज्यादा काम होगा। मैं कोशिश करूंगा कि इंटरनेट बाबा की शरण में हिंदी में जमकर लिखू और अपनी आने वाली पीढ़ी को यानी पत्रकार बंधुओं को वह समस्त जानकारी उपलब्ध करवाऊ जिसकी उन्हें अक्सर आवश्यकता रहती है।
इन सभी का खुलासा में आगे करूंगा पहले आंखों देखी से निपट लिया जाये। मेरी पहली नौकरी आंखों देखी में थी। जिस दिन इंटर्शिप पूरी हुई उसी दिन शहजाद साहब जो मैडम के दाये बाये सारे हाथ हैं ने हमारे सर पर हाथ रखकर हमे आर्शीवाद की मुद्रा में कहा। जाओ बच्चा तुम्हारा कल्याण हो गया। हम और मैडम तुम्हारे काम से बहुत खुश है। तुमने जो कारनामा अपने इंटर्नशिप के दौरान किये और एक नयी खबर बड़ी ही रोचक ढ़ंग से की उसके बदले तुम्हे नौकरी दी जाती है। तुम्हे साढ़े तीन हजार के मासिक वेतन पर रखा जा रहा है और तीन महीने बाद ये तनख्वाह दो-गुना बढ़ा दी जायेगी, लेकिन शर्त यही है कि तुम इसी तरह की स्टोरी लाते रहोगें और मैडम के साथ - साथ हमे भी खुश रखोगें। मैं मुर्ख अज्ञानी पहले इन बातों को समझ ही नहीं पाया कि मान्यवर शहजाद क्या कह रहें हैं। हम तो समझे खुश का मतलब मेहनत से काम करना होता है। हमने जब ये खबर अपने माता पिता को सुनाई तो हमारी माता ने उस दिन मंदिर जाकर दस रूपये का प्रसाद बांटकर भगवान के समक्ष हमारी कामयाबी की दुआ मांगी और हमने भी उनकी आंखों में आंखों देखी की दया को आंसूओं के रूप में देखा। मेरे बूढ़े बाप ने अपनी 502 पताका बीढ़ी का लंबा कस लेकर और दम साधकर मेरी मां से कहां। अजी सुनती हो अब अपना लोंडा भी कमाने लगा, अब तो घर में मुझे अराम करने ही दिया करेगी तू। मैं भी यह बात सुनकर खुश था कि अब मुझे नौकरी मिल गयी है। दूसरे दिन मैं बड़े ही जोश से अपने दफ्तर पहुंचा और पहुंचते ही मान्यवर शहजाद जी के चरण स्पर्श करके नमस्कार करके बोला, सर आपका मेरे ऊपर बड़ा उपकार है। आप ही है जिन्होंने मेरी प्रतिभा को समझा है बस आप मुझे आर्शीवाद प्रदान कर दो फिर देखना मे पत्रकारिता के क्षेत्र में कैसे झंडे गाढ़ता हूं मेरी बातों पर मुस्कुराते हुए मान्यवर शाहजाद उर्फ आंखों देखी के वीडीयो एडिटर यानी टेक्नीकल आदमी जो दसवीं फेल हैं और पत्रकारिता किस परिंदे का नाम हैं ये उन दिनों नहीं जानता था ने अपनी आंखे ऊपर चढ़ाते हुये कहा। बेटा आर्शीवाद तो हमने तुम्हें दे ही दिया है, लेकिन आज से एक बात का ध्यान रखना कि स्टोरी आपने पहले मुझे दिखानी है हमारे ब्यूरो चीफ दुष्यंत और आनंत मित्तल को अपनी स्टोरी नहीं देनी है। हमें एक दम से तो कुछ समझ में नहीं आया लेकिन शाम तक समझ में आ गया जब अनंत मित्तल और दुष्यंत जी आंखों देखी को अलविदा कह गये। अब हमारी समझ में पहले ही दिन आ गया कि हमे एकदम से नौकरी पर क्यों रख लिया गया था। थोड़ा बहुत हम लिख ही लिया करते थे, बाकी कहानी पर मैडम कलम चला ही लिया करती है। आंखों देखी में हमारे साथ वाली कुर्सी पर ही हमारे दोस्त हैं दिनेश पाठक वो आज तक उसी कुर्सी पर हैं जहां हम उन्हें छोड़ गये थे क्योंकि वह वो करने में एक्सपर्ट हो गये जो हम आजतक नहीं सीख पाये। खैर हम काम करते रहें महीना बीता सभी की तनख्वाह मिली, लेकिन हमें नहीं मिली। इसका कारण जब हमने शहजाद जी से पूछा तो उन्होंने कहा तुम्हारा नाम अकाउंट सेक्शन में अपडेट नहीं हुआ इसलिये इसबार चैक नहीं बना अगले महीने बन जायेगा। हमने सोचा चलो वैसे भी 20 तारीख तो हो ही गयी है। अगला महीना भी आया जाता है। अगला महीना आया और अगले महीने तक हम भी पूरी तरह से पक चुके थे। घर पर जबाव देकर भी और दफ्तर में फोकट में काम करते करते भी। फिर अगले महीने की 10 तारीख आयी सभी को चैक मिल गया, मुझे फिर नहीं मिला। मैंने इसबार अकाउंट सेक्शन में इस बारे में मालूमात किया जो मेरी ही सीट के सामने मौजूद था जो रिसेप्सन भी था। वहां एक दक्षिण भारतीय व्यक्ति बैठा करते थे जिनका नाम राजन था। उन्हें ना तो अंग्रेजी आती थी और ना ही हिंदी। मैं पिछले तीन महीने से सोच रहा था कि इस आदमी को यहां क्यों रखा गया है। इस बात का पता भी मुझे उस दिन चल गया। मैंने पूछा मेरे चैक का क्या हुआ तो वह व्यक्ति मुझे देखकर थोड़ी देर तक तो हंसता रहा। मुझे लगा जैसे उसकी समझ में चैक का मतलब कुछ और तो नहीं आया मैंने इशारे से कहा मेरे चैक का क्या हुआ। तो वह बोला मुझे नहीं मालूम जाकर शहजाद से पूछो। मैं जब शहजाद के पास गया तो वह बोला कि अकाउंट में बात करो जब अकाउंट पर गया तो वह फिर बोला तुम क्या चैक चैक कर रहें हो मेरी समझ में नहीं आता। मुझे हिंदी नहीं आता। मैं बोला लेकिन तुम इतना तो समझते ही हो कि मैं क्या बात कर रहा हूं। वह अपने लंबे दांत दिखाकर मुस्कुराते हुआ बोला लेकिन भाई मेरे, मुझे जब तक समझ में नहीं आता जब तक शहजाद मुझे साइड में ले जाकर नहीं समझा देता। मेरी समझ में अब तक आ चुका था कि शायद घी सीधी ऊंगली से नहीं निकलेगा। इस बीच हमारे संगी साथी "आंखो देखी" के हमारे अंदर हवा भर ही चुके थे, जिसमें नईम और आंखों देखी के क्राइम रिपोर्टर शमशाद अली खास थे। हवा इन्होंने क्यों भरी इसका अंदाजा भी हमें हो चला था। क्योंकि नईम हिंदी में रिपोर्टिग नहीं कर पाता था। शमशाद को अंग्रेजी नहीं आती थी। इसलिये इन दोनों कि हमसे ......................थी? लेकिन हमने सोचा यह भी ठीक कह रहें हैं। अब भला कोई फ्री में कब तक कोई काम कर सकता है। लेकिन मैडम कि एक आदत थी वह जब तक किसी रिपोर्टर को रूला नहीं लेती और उससे अपनी रात दिन जी हुजूरी नहीं करवा लेती वह उसे नौकरी पर नहीं रखती और ये दोनों ही चीजे हमने पिछले चार महीनें में नहीं की। जब हर चीज की हद हो गयी और मैं पक गया, तो मैं मैडम के कमरे में गया और मैंने कहा। मैडम मेरा नाम जासूस पर्दाफाश करमचंद है और मैं आपके संस्थान में काम करता हूं।
इसपर मैडम ने बड़े ही रौबदार अंदाज में कहा, तो फिर मैं क्या करू कि तुम्हारा नाम जासूस पर्दाफाश करमचंद है या फिर कुछ और, मैंने घिघियाते हुए कहा मैडम मैंने इस दिवाली पर आंखों देखी के लिए एनटीपीसी दादरी से एक ब्रेकिंग स्टोरी की थी जिसपर आंखों देखी को काफी वाह वाही मिली है। मैडम बोलीं हां ये बात मैं जानती हूं आप मुझे ये बात क्यों बता रहें हैं। मैंने कहां मैंडम मेरे साथ के सारे स्टाफ को अपनी तनख्वाह मिल गयी, लेकिन मुझे पिछले दो महीने से नहीं मिल रही है। उन्होंने पूछा तुम्हे नौकरी ज्वाइन किये कितना समय हुआ है। मैंने कहा दो महीने। मैडम ने पूछा तुम्हे रखा किसने हैं, मैंने कहा शहजाद जी ने। मैडम ने कहा, जब शहजाद ने रखा है तो तनख्बाह भी तो वही देगा, मैं तुम्हे नहीं जानती की तुम मेरे यहां नौकरी करते हो। मैंने कहा मैडम मैं चार महीने से आप के यहां हूं आपको यह नहीं पता कि मैं यहां क्यों हूं। मैडम ने साफ कहा मेरे यहां लोग सालों साल से हैं, लेकिन मैं उन्हें भी नहीं जानती तो तुम कौन हो, और हां अब मेरा समय खराब मत करो और दफा हो जाओ। मैं धीरे से मैडम के कमरे से बाहर हो गया और बाहर आकार शहजाद से बोला भाई साहब आपके बारे में सुना बहुत कुछ था लेकिन आज जान भी लिया। अब ईश्वर से यही दुआ करेंगे कि आप जैसा आदमी हमें इस फील्ड मैं ना मिले। इसपर शहजाद ने अपने खींसे निपुरते हुये कहा। हमारा काम है मैडम का काम करना और वो भी मुफ्त में, अगर नहीं करेंगे तो हमारी गाड़ी में तेल नहीं पड़ेगा। मेरे भाई तू मुझे ऐसी धमकी मत दे कि मुझसे मुलाकात नहीं होगी। मैं तो तुम्हे हर मोड़ पर मिलने वाला हूं। हां ये बात अलग है कि दूसरी जगह दूसरी सूरत और नाम का आदमी मिलेगा, लेकिन मिलूंगा मैं ही। मैं आंखों देखी को छोड़ आया और सोचता रहा कि क्या शहजाद सही कह रहा है।
क्योंकि जीवन के सात साल पत्रकारिता को समर्पित करने के बाद आज मैं एक ऐसे संस्थान के साथ हूं जहां मेरे काम को सराहा भी जाता है और मुझे भी पूरा सम्मान मिल रहा है। पैसा पत्रकारिता में चैनल में भर्ती होने के बाद या फिर किसी रैकेट यानी 'पत्रकारिता की दलाली' करने के बाद ही आता है।
इस बात को बताने में या कहने में मुझे अब कोई डर इसलिये नहीं लगता कि अब मैं मान चूका की समस्त टीवी चैनल और अखबार वाले मुझे नौकरी नहीं देने वाले। जिसने मेरे और मेरे बच्चों का दाना पानी देना था, उसे मेरे काम से कोई शिकायत नही है। यानी अब मैं एक ऐसे पवित्र और अच्छे संस्थान में हूं जहां मेरी और मेरे काम की इज्जत होती है। एक पत्रकार को यही चाहिए भी होता है और रही बात पैसों की तो मैं ये मानता हूं कि पैसें तो रेड लाइट पर खड़ा भीखारी भी कमा लेता है, लेकिन इज्जत और सम्मान से मिली सूखी रोटी में शहद की मिठास होती है। ये मेरी खुशकिस्मती है कि मुझे आज एक ऐसा संस्थान मिला है जो मुझे ये दोनों चीजे प्रदान कर रहा है।
क्रमश:
आगे मैं आपको बताऊंगा कि आंखों देखी में काम करने का क्या माहौल था। मैंने वहां किस तरह से कुछ खोजी खबर की तथा दोपहर के भोजन का बंदोबस्त और दफ्तर में पानी, कुर्सी, टॉयलेट और हमारे स्टाफ के दूसरे लोगों का क्या तरीका था काम करने का। इसके अलावा मैडम को स्टाफ से क्या चाहिए होता है, इसका भी खुलासा करूंगा ।